स्टेशन
थी खबर कहा की आज कज़ा की रात है धड़कने फिर भी सांसो का लिहाज़ करती रही देता सहारा कोई कि बाहों मे टूटकर रो लिया होता तम्म्ना इस ख़याल में रात भर मरती रही जानते थे तेरे मिलने की कोई सूरत नही न जाने क्यों नज़रे हर चेहरो मे तुझे ढूंडती रही टूट के गिर गये वो पत्ते ही जिनसे थी कभी छाव मेरे साथ ये पत्तियाँ भी अलाव मे जलती रही धीरे धीरे तुम गये और उम्मीद भी गुम हुई एक शाम रह गयी अकेले जो साथ मे बुझती रही खामोश नासाद मैं बैठा रहा लॅंपोस्ट के नीचे बल्ब था तेज़ बहुत रोशनी आँखो मे चुभती रही कैसे भी चला आया उस रात तेरे शहर से मैं रूह आज भी वही स्टेशन पे बैठी रोती रही Like