फेमिनिज्म

फेमिनिज्म
आपने फेमिनिज्म के बारे में सुना होगा। फेमिनिज्म को लेके बहुत मिसकॉन्सेप्ट हैं सोसाइटी में।पहली बात तो ये की फेमिनिज्म शब्द का फेमिनिन से कुछ लेना देना नही है। एक पुरुष भी फेमिनिस्ट हो सकता है। दूसरी बात ये की फेमिनिस्ट से ज्यादा सुडो फेमिनिस्ट हैं सोसाइटी में। अब ये सुडो फेमिनिस्ट वहीं है जो लड़के लड़कियां बराबर हैं ,वाली बात तो करते हैं। पर जब शादी की बात आती है ,तो लड़का वही ढूढ़ते है जिसकी सैलरी ज्यादा हो और जात बिरादरी का हो। अगर रेस्टोरेंट में खाना खाया तो मानते हैं कि बिल लड़के को देना चाहिए और इत्यादि इत्यादि । आपको तो पता ही होगा।
दूसरे शब्दों में कहें तो ये सुडो फेमिनिस्ट उतने ही फेमिनिस्ट होते हैं जितना हम ये समझते हैं कि पीटर इंग्लैंड , मंटों कार्लो, लुइ फिलिप जैसे ब्रांड, फॉरेन ब्रांड है। जबकि हकीकत ये है कि ये सारे ब्रांड ही इंडियन हैं। खालिस देसी । और बताओ साला हम समझते थे की राजू बन गया जेंटलमैन।
कभी फेमिनिज्म का सपोर्ट करती हुई लड़कियों को देखा है । नही देखा है तो यु ट्यूब पर देखिएगा , बहुत वीडियो हैं। अब वो सही कहती हैं या गलत इस पर कमेंट नही करूँगा । क्यूँ की वहाँ पर मुझे महिलाओं में फेमिनिज्म की समझ कम और पुरुष जाति के लिए गुस्सा ज्यादा नज़र आता है। शायद उन्हें ये भी पता न हो कि फेमिनिज्म शब्द का कांसेप्ट भी सर्वप्रथम एक पुरुष, यूटोपियन सोशलिस्ट ,चार्ल्स फुरिएर के द्वारा लाया गया था। जमाने के भेदभाव और पहुचाई गई चोट से लड़कियों में अक्ल तो आयी पर गुस्सा भी आया जो कि स्वाभाविक था। क्रोध एक एसी आग है जिसे इंसान खुद के अंदर जलाता है और उम्मीद करता है सामने वाला इसमें जले। सामने वाले का तो कुछ नही हुआ मगर चोट खाके जितनी अक्ल आयी थी उतनी क्रोध में जल के राख भी हो गयी। कपड़े और भाषा का ही अंतर आया है। समाज में बदलाव अभी भी नही आया है। या आया है तो नाम मात्र का।
क्रोध एक बार शांत करके ये सोचने की जरूरत है कि क्या जिन बुराई के कारणों से फेमिनिज्म की शरुवात हुई वो आज भी वही हैं या उनका स्वरूप बदला है। मुझे लगता है कि कुछ बदला है। फेमिनिज्म की शुरुवात हुई थी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरुद्ध । फेमिनिज्म इक्वलिटी की बात करता है। जो कि सही है। पर वो क्या कहते है कि औरतें ही औरतों की सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं। कैसे ?इस चीज़ को समझने से पहले एक बात और समझनी जरूरी है, और वो है इकॉनमी।
औरत मर्द फलान ढिमकान इन सब से भी ऊपर एक चीज़ है ,इन सब से क्या मैं तो कहूंगा बाकी सभी चीज़ों से ऊपर इकॉनमी आती है। आइए समझने की एक कोशिश करते हैं कि इकॉनमी का क्या रोल है सोसाइटी मे और कैसे ये फेमिनिज्म को एफेक्ट करती है।
दुनिया के प्रारंभ में सब बराबर था , औरत मर्द सब अपना काम कर रहे थे। पर जैसे ही आबादी बड़ी लोगों में साम्रज्यवाद की भावना आयी। ज्यादा बड़ा साम्राज्य तो ज्यादा इकॉनमी । ज्यादा इकॉनमी तो ज्यादा बेटर लाइफ।हर कोई अपनी राज्य सीमा बढ़ाना चाहता था । उसके लिए जरूरत थी ज्यादा आदमियों की । तो शुरू हो गया सिलसिला । मर्द को लड़ाई करने का और औरत को बच्चा पैदा करने का काम मिल गया। यहाँ पर इकॉनमी ने अगले हज़ारो साल के लिए औरत मर्द का भाग्य लिख दिया । थोड़ा फ़ास्ट फारवर्ड करते हैं।
चलिये उनीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में चलते हैं, जब फेमिनिज्म जस्ट स्टार्ट हुआ था।अमेरिका की सिगरेट बनाने वाली एक कंपनी ने अपनी सेल बढ़ाने के लिए फेमिनिज्म को मुद्दा बनाया और कहा कि औरतों को भी सिगरेट पीना चाहिए क्यूँ की सिगरेट पीना डोमिननेंट होने का प्रतीक है। अगर औरतें भी सिगरेट पियेंगी तो वो डोमिनेंट बनेंगी। यहाँ पर भी मुद्दा इकॉनमी को बूस्ट करने का था ।फेमिनिज्म से कुछ लेना देना नही था।और जरिया बनाया गया फेमिनिज्म को । फेमिनिज्म की साइक्लोजी को इस्तेमाल करके पूंजीवादियों ने उस समय की महिलाओं को दिग्भर्मित किया ताकि वो अपनी सेल को बढ़ा सकें। हज़ार सालों से गुस्से में भरी औरतों को ये बात सही लगी ।
देवानंद ने तो बाद में फिक्र को धुँए में उड़ाया। इन औरतो ने हज़ारो साल की फिक्र को धुँए में उड़ाने की उससे पहले ही ठान ली।जोर शोर से इसमें पार्ट लिया। उस साल तो एक मार्च भी निकाली गयी , जिसमे महिलाओं को पाइप वाली सिगरेट के साथ पीते हुए चलाया गया। और पाइप का नाम दिया Torch of Freedom.
अब उन देवियों को कौन समझाता सिगरेट कैंसर का प्रतीक है, फ्रीडम का नही। खैर
आइए अब हाल के वर्षों पे नज़र डालते हैं, जबसे TV और दूसरे विसुअल इलेक्ट्रानिक मीडिया का प्रचलन बढ़ा है। आप देखेंगे कि ज्यादातर एडवर्टाइजमेंट में औरतों का ऑब्जेक्टिफिकेशन किया जाता है ।गूगल पे सर्च कीजिये objectification of women लाखो तस्वीर दिख जाएंगी जहाँ पर प्रोडक्ट्स को बेचने के लिए फीमेल सेक्स का सहारा लिया जाता है। TV हो सोशल मीडिया या कोई प्रतिष्टित मैगज़ीन हर जगह हाफ या ऑलमोस्ट फुल नेकेड वीमेन अवेलबल हैं। कभी बच्चों के वीडियो गेम वाली लड़की को देखा है। नही देखा है तो उसकी ड्रेस देखिएगा। मैंने तो असली लड़कियों को देखना छोड़ दिया था। ये अतिशयोक्ति अलंकार था , ये न समझियेगा की मै ठरकी हूँ।
यही पर ऊपर वाले प्रश्न का जवाब भी देते चलते हैं कि कैसे औरतें औरतों की दुश्मन बन रही हैं?
फीमेल्स का ऑब्जेक्टिफिकेशन हो रहा है । फीमेल्स को लग रहा है कि मेरी मर्ज़ी से मेरी बॉडी का यूज़ हो रहा है तो गलत क्या है। और इस बात के पैसे मिल रहे है तो उसमें भी क्या गलत है। कुछ महिलाएं समझती हैं और कुछ नही। पैसो के नाम पर खुद को ऑब्जेक्टिफाय कराने में उन्हें कोई तकलीफ नही है। एक गाने का ही उदाहरण लीजिये "लौंडिया हम पटाएँगे मिस कॉल" से , करीना जी ने इन गाने पे नृत्य किया है। हमारी सोसाइटी में तो पढ़े लिखों का बुरा हाल है । जो कम जागरूक हैं वो तो यही समझेंगे की लड़कीं का फ़ोन नंबर लो और धुआंधार कॉल करो , लड़कीं है इंसान थोड़े ही है। पट जाएगी। क्या करीना को ऑब्जेक्ट नही करना चाहिए था। पर पैसा
ये लोग खुद ऑब्जेक्टिफिकेशन को बढ़ावा दे रहे हैं वो भी फेमिनिज्म के नाम पर ही।मगर वो एक बात भूल रही हैं कि एक पूरी जनरेशन ही वोमेन्स को ऑब्जेक्टिफाय होते देख रही है। मर्द जाति को कोई फर्क नही पड़ेगा पर आप फिर से वहीं पहुच जाएंगी जहाँ से चली थी।मर्दों के लिए औरते हमेशा एक सुंदर समान की तरह ही रहेंगी । उसको(पुरुष) कभी पता ही नही चल पाएगा कि सामने वाले इंसान के अंदर (अगर सामने वाले ने इंसान समझा)दिल और अहसास भी हैं। यहाँ पर भी खेल पैसे का है। इकॉनमी का ।
कुछ समय पहके दीपिका पादुकोण का एक वीडियो आया था । उस वीडियो का भी सपोर्ट मैंने किया था क्यों कि वहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला था। आपकी choice है। पर उस मैसेज में कुछ झूट गया था ।उसमे my choice की बात की गई थी, पर हर एक चॉइस के साथ एक परिणाम भी जुड़ा होता है। ये बात दीपिका जी को बताना चाहिए था।इस स्वतंत्रता के आधार पर यदि आप किसी मल्टीनेशनल कंपनी के प्रोडक्ट को सेल करने के लिए अर्धनग्न होती हैं तो , बेसिकली आप पूंजीवादी व्यवस्था की ही गुलामी कर रही हैं। और फेमिनिज्म को डाउन कर रही हैं। फेमिनिज्म तो लिबर्टी और इक्वलिटी की बात करता है।आप कैसे स्वतंत्र है यदि सिर्फ आपकी शारीरिक सुंदरता ही आपकी एक मात्र पहचान है। वो नही तो आप किसी लायक नही।मेरी बात को किसी भी तरह कल्चर से न जोड़ियेगा। मेरा कोई भी मक़सद नही है कि मै बताऊ की लड़कियों को कैसे और कितने कपड़े पहनने चाहिए । बजाय की आप सिर्फ पैसों के लिए शरीर की प्रदर्शनी लगाएं आप कला के एक्सप्रेशन के लिए पूर्ण या अर्ध नग्न तस्वीर बनवाये पैसो की बाध्यता के बिना,तो आपकी स्वतंत्रता है यहाँ पर और फेमिनिज्म को बढ़ावा भी है । नही तो आदिकाल से औरतें खिलौना बन के ही रही हैं। इस युग मे भी हैं ।अंतर इतना है कि मेक अप करके खिलौना और सुंदर बना दिया गया है।
हालांकि इस दुनिया के किसी कोने में एक जगह ऐसी भी है जहां matriarchal socity है । जहाँ पर स्त्रिया ही सर्वेसर्वा होती हैं । पर अफसोस वहाँ पर भी पूंजीवादिता का कैंसर फैल चुका है। उसके विषय मे बात फिर कभी।

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