नज़्म

नज़्म
अब मैं चाहता हूँ ख्याल सो जाएँ
फिर से वही पुराने दिन हों
सर्दियों की हल्की धूप हो
न कहीं जाने की चिंता
न लौटने की परवाह
मेरे जेहन में एक कहानी हो
एक अधूरा मिसरा हो
और उनको पूरा करने की जद्दोजहद
फिर यूँ लगता है कि जिंदगी
तुझे समझने की कीमत तो चुकानी पड़ेगी
कीमत नही चुकायी तो
ये कहानियाँ ये शायरी खोखले ही रहेंगे
बेमतलब बेकार
अगर शर्मिंदगी लिखूँ तो
क्या है शर्मिंदगी
दर्द नफरत गुस्सा जलन पश्चाताप
क्यूँ है ये भावनाएं
शायद वो अशर्फियाँ हैं
जिनसे मै एक नज़्म खरीद पाउँगा
और ये नज़्म भी कैसी है
न इसमे माँ की लोरी है
न प्रेम के उन्मुक्त पल
सिर्फ कड़वाहट भरी बातें
दिल को राख करने वाले किस्से
आखिर ये कैसा सौदा है
फिर सोचता हूँ नज्म नहीं
मैंने आईना लिया है
जिसमें न सच दिखता है न झूठ
बस दुनिया दिखती है
जहाँ कभी कभी मै भी नज़र आता हूँ
एक किरदार की तरह
जिसकी बातों में सच झूठ कुछ भी नही
कोई गहराई नही
सतही बातों के पुलिंदे हैं
एक रैंडम इलेक्ट्रान की तरह
भाग दौड़ है
जिसकी स्थिति एक बादल है
नवाब

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