Posts

Showing posts from September, 2017

आसमान को भी ज़मी की

आसमान को भी ज़मी की ये खबर कर दें कहो तो ज़मीनो आसमा इधर उधर कर दें बात दिल मे आती है और डर भी साथ क्या जाने की लोग मुझको किधर कर दें मोहब्बत में मकाम आये जरूरी तो नही क्यूँ न मोहब्बत को रास्ते का सफर कर दें है नफरत का सबब वो तो क्या करें लगायें आग दुनिया को सिफर कर दें बैठा है महफ़िल में डरा जाता है दिल कहीं न लोग पहचानों का जिकर कर दें हम क्यूँ न रोएं जार जार सर को फोड़े है सब को ही नही उनको ये खबर कर दें हम ये भी कहाँ कहते कि इक हमी हैं कतार में हों और तो हमे मुंतज़र कर दें करना है साहिब ए मसनद को फैसला कर दें साहिब सजा ए फाँसी अगर कर दें दुआ का असर ना लाना है कि ऐसा हमीं हो जाये खुदा राख दैरो दहर कर दें रखनी है एक याद यादों के मोहल्ले में डर है ना छेड़ के लोग उसे बेघर कर दें नवाब  यकीं  करे तो कोई एक बार कसम अहद ए यकीं पर उमर कर दें मुंतज़र- इंतज़ार में दैरो दहर -मंदिर मस्जिद अहद -भरोसा

शायद हो दूर अपनी गलतफहमियां

शायद हो दूर अपनी गलतफहमियां चलो किरदार अपने बदल देखते हैं कहीं देख न ले वो हमें देखते हुए हम ऐतिहातन उसे सम्भल देखते हैं तिलिस्मो के जाल है क़िरदारों में टूटे तिलिस्म क्या हो असल देखते हैं मेरे लफ़्ज हैं कपड़े तिरी रूह से लिपटे हटाते हैं कपड़ा ना हो खलल देखते हैं शीरीं को है उमीद ए वफ़ा फरहाद से वफ़ा ए शीरीं में हम  कतल देखते हैं वो सच बोलता है सच की खातिर नही क्यूँ ना सच से आगे निकल देखते हैं हम समझते हैं कि समझते है खुद को क्या पता थोड़ा नजरिया बदल देखते हैं तुझपे जां निसारी का दावा करते सब भागने की करता कौन पहल देखते हैं कैद कर ली हवा तुझे जो छू के गुजरी सुना पी के हवा जन्नत अहल देखते हैं हो रहे ताज मुहब्बत की एक निशानी याँ तो कटे दस्त रूह ए महल देखते हैं क्या है मुनाफ़िक़त पूछते हैं क्या बात क्यूँ नही आप आईने में शक्ल देखते हैं मेरी चाहत में हाँ थी और मजबूरी में ना लेके वही भरम माल रोड टहल देखते हैं गुस्सा बातों का है जज्बातो का नही खफा होके तुझसे तुझमे दखल देखते हैं इल्म ए राज ए वफ़ा है दोनों को अपनी आज कर लें फ़िराक़ क्या कल देखतें हैं सब काम कर...

शायद हो दूर अपनी गलतफहमियां

शायद हो दूर अपनी गलतफहमियां चलो किरदार अपने बदल देखते हैं कहीं देख न ले वो हमें देखते हुए हम ऐतिहातन उसे सम्भल देखते हैं तिलिस्मो के जाल है क़िरदारों में टूटे तिलिस्म क्या हो असल देखते हैं मेरे लफ़्ज हैं कपड़े तिरी रूह से लिपटे हटाते हैं कपड़ा ना हो खलल देखते हैं शीरीं को है उमीद ए वफ़ा फरहाद से वफ़ा ए शीरीं में हम  कतल देखते हैं वो सच बोलता है सच की खातिर नही क्यूँ ना सच से आगे निकल देखते हैं हम समझते हैं कि समझते है खुद को क्या पता थोड़ा नजरिया बदल देखते हैं तुझपे जां निसारी का दावा करते सब भागने की करता कौन पहल देखते हैं कैद कर ली हवा तुझे जो छू के गुजरी सुना पी के हवा जन्नत अहल देखते हैं हो रहे ताज मुहब्बत की एक निशानी याँ तो कटे दस्त रूह ए महल देखते हैं क्या है मुनाफ़िक़त पूछते हैं क्या बात क्यूँ नही आप आईने में शक्ल देखते हैं मेरी चाहत में हाँ थी और मजबूरी में ना लेके वही भरम माल रोड टहल देखते हैं गुस्सा बातों का है जज्बातो का नही खफा होके तुझसे तुझमे दखल देखते हैं इल्म ए राज ए वफ़ा है दोनों को अपनी आज कर लें फ़िराक़ क्या कल देखतें हैं सब काम कर...

उम्र गुजरी है ये झूट

उम्र गुजरी है ये झूट सच बताने में वो नाम था कोई और मिरे हर फसाने में वक़्त भी गुजरा यूँ  की न गुजरी जमाने में रहा कोई भी सफर तू था आने जाने में कुछ बात आई  हो गयी  कुछ ख़्वाब आया  खो गया दरम्यां ये क्या हुआ  क्यूँ दरम्यां खो गया हो क्या की फिर  फिर  तलाश क्यूँ की ढोये बातों की  लाश क्यूँ किस्सा हो  ये  आसाँ कैसे  किस्सा भुलाने में बहुत ज्यादा ही खोया मैंने  थोड़ा सा पाने में कुछ कमीं की बात थी  हाँ ये हमीं की बात थी हमको लगा ये अर्सा  हमको बताने में

आईना

हमने फिर आईने को धोखा दिया खुद को लाजवाब कहा पर्दा गुनाहों पे कर सजदा  किया जहाँ को खराब कहा चलेगा काम कहके चलता किया तेज़ाब को आब कहा चाक दिल जिस आशिक ने सिया इश्क़ को ख्वाब कहा जिसके मिलते काबा सौदा किया उस को शराब कहा जलता  हुआ  जो उस  रोज  पिया होंटो को तेज़ाब कहा आज  अपनी  गलती  मान  लिया खुद को नवाब कहा

जो लेने आये थे खबर

जो लेने आये थे खबर खबर बन गए थे हरे कभी अब सूखे शजर बन गए हमे दोस्ती के उसूल न सीखा मूनिस हैं अमृत भी जहर को जहर बन गए न कर भूल आब को आब कहने की हँसे  तो शबनम रूठे कहर बन गए जिंदगी समेटी  है तेरी खातिर ग़ज़ल लिख  दिया खुद को बहर  बन  गए कताला  रहजन दगे बाज़  मक्कार गांव थे हम कभी अब शहर बन  गए लगता है देख रहे दुनिया फिर से वही देखें हैं फिर- फिर चक्का ए दहर बन गए किसी को हासिल कहीं आरजू  हुए खुदा ना हुए ख़ुदा की महर बन गए इंतज़ार करने की ये सूरत ए हाल है बूंद थे सीपी  में कबसे गुहर बन गए जज्बा ए मोहब्बत हमसे है लाजिम उसने दिल तोड़ा हम असर बन गए तर्के ताल्लुक रहा दिल का आरजू से बाद मर्ग ए आरजू क्यूँ मगर बन गए हमी हम हो ऊपर  ये कोई बात  नही जो चढ़ न बन पाए हम उतर बन गये था मंजिलो का ऐतबार ले जाएं कहाँ सो मंजिलो से चले आगे सफर बन गए सोचते हो लिखने से पहले सोचेंगे लोग नवाब कमजोर  कब इस कदर बन गए

आर्टिकल 110 की हत्या और अपना शक्तिमान

कहानी की शुरुवात होती है 23 अगस्त 1954 से जब पहली बार राज्य सभा अस्तित्व में आयी।  इसके आने से पहले constituent assembly में बहुत मारा मारी भी हुई । तर्क ये था कि फेडरल सिस्टम को बचाना है तो राज्य सभा जरूरी है। राज्य सभा को बनाया गया ताकि संसद में किसी भी  बिल को बिना पच्छपात के सूझ बूझ एवं  तर्क विमर्श के साथ  पारित किया जा सके । राज्य सभा का कांसेप्ट बेहतरीन था जो की लोक सभा पर चेक और बैलेंस के लिए बनाया गया था, जिससे लोक सभा के गलत कामो पर लगाम लगायी जा सके,  परन्तु  श्रीकृष्ण जो ज्ञान गीता के उपदेश में देना भूल गए वो ये था कि भविष्य में राज्य सभा की सभी  विपछी पार्टियां राज्य सभा की शक्तियों का प्रयोग राज्य हितों के लिये कम(या बिल्कुल नही) और पैसा लगा के इलेक्शन हारे हुए दबंग नेताओं , बिसनेस मैन जिन्होंने पार्टी को फंडिंग दी है , उनकी संसद के अंदर बैक डोर से एंट्री कराने के उद्देश्य से ज्यादा की जायेंगी।  गलत कामो पे लगाम लगाने की बजाय ये विपछी पार्टियां लोक सभा की रूलिंग पार्टी  पर स...