व्याकुलता

मक्का गये मौलवी काशी गये संत
दुविधा कैसी उपराई गयी सोचूँ मिले ना अंत
लाल हुई मैं जाइ रही और घबराऊ संग
गिरधर बरसे नाही पर भिझ गयो है अंग
कासे काहु मैं पीर हिया की
दशा विपत की आई बड़ी
हिय ही जाने पीर है उसकी
व्याकुल कर दे गति जो मन की
विचर रही है करुन वेदना
लहूलुहान हुआ सब जाता है
साची बता दे सखी तू मोहे
क्या तोहे भी ये दिन आता है
दिन मास बरस सब बीत गये
गति ना तन की बदली है
सावन आए घिर बरस गये
इसकी तो हर मास मे बदली है

Comments

Popular posts from this blog

बहरें और उनके उदाहरण

मात्रिक बहर

बहर