आर्टिकल 15
आर्टिकल 15 एक महत्वपूर्ण सिनेमा है। मुझे डर था की दलितों के प्रति सहानभूति जगाने के लिए कहीं मूवी को ओवर ड्रामाटिक न बना दिया जाए और जनरल केटेगरी के लोगो को विलेन पर ऐसा हुआ नही। लोग कह रहे हैं मूवी एन्टी ब्राह्मण है, लेकिन मूवी में हीरो तो ब्राह्मण है जो कास्ट सिस्टम के अगेंस्ट जा कर लड़ता है और न्याय दिलाता है। शायद जो विरोध कर रहे हैं उन्हें या तो सच घिनौना लगा या फिर वो अखबार नही पढ़ते क्योंकि मूवी में वही बात कही या दिखाई गयी है जिसकी खबर आये दिन सुनाई पड़ती है। ये कहानी एक घटना पर बेस्ड है, लेकिन सिर्फ उसी पर आधारित नही है। कहानी में कई सच्ची घटनाओं से रिफरेन्स लिया गया है। चाहे वो गुजरात में दलितों को नंगा पीटना हो या फिर एक प्राइमरी स्कूल में दलित के हाथ का खाना खाने से मना कर देना। जिन्हें फिर भी लगता है की मूवी एन्टी ब्राह्मण है तो उन्हें गटर में उतरने वाले लोगों से उनकी जाति पूछनी चाहिये। हैरानी की बात नही होगी की आंकड़े सिर्फ एक ही जाति विशेष का नाम लेंगे और निश्चित तौर पर वो कोई ऊँची जाति नही होगी। आज कास्ट की बात करिए तो लोग रिजर्वेशन पर डिस्कशन करने लगते हैं। जो आदमी लोगों के मल की सफाई करते हुए गटर में मर जाता है उसके बारे में बात क्यों नही होती? बहुत से लोगो को लग सकता है की क्या आज के समाज में कोई ऐसी बात करता है या ऐसी चीज़ें भी होती हैं क्या ?
तो उनको सोचना चाहिए कि क्यों चुनावो के दौरान हमारे नेताओं को ढूढ ढूढ के दलितों के घर एक ही थाली में खाना खाने का दिखावा करना पड़ता है। धुँआ वही निकलता है जहाँ आग लगी हो।
हम नही जानते इसलिए चीज़ों को महत्व नही देते और आगे बढ़ जाते हैं। मैं समझता हूँ बहुत से लोगों ने अपने बचपन में नोटिस किया होगा कि जब आप के घर की साफ सफाई करने कोई आता था तो उस" कोई" के चाय का कप अलग रख दिया जाता था।लोग अपने बच्चों तक को सिखाते हैं कि फलाने के घर वाले खाने को कुछ दें तो खाना नही और बच्चों ने पूछ लिया क्यों तो जवाब साफ होता है क्योंकि वो भंगी चमार हैं या पासी हैं। ये लोग चमड़ा का काम करते हैं ,टट्टी साफ करते हैं।
भंगी चमार ये हैं तो जातिगत शब्द लेकिन समाज में एक गाली के समान हैं, माधरचोद और बहनचोद इसके सामने छोटी गालियाँ हैं। कई सौ सालों से ये व्यवस्था हमारे समाज में रही है और यदि ये आज भी नही खत्म हुईं तो इसका दोषी भी हमारा समाज ही है। यद्यपि छोटी जातियों के प्रोटेक्शन के लिए sc/st एक्ट भी बनाये गए। उनके लिए रिजर्वेशन की भी व्यवस्था की गयी लेकिन आज भी समाज से वो बुराइया पूरी तरीके से खत्म नही हुई। इसके लिए सिर्फ उप्पर कास्ट ही नही खुद लोअर कास्ट के वो लोग भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपने नेताओं को चुनने का आधार जाति को बनाया। जिन्होंने sc/st एक्ट का दुरुपयोग भी किया । खुद रिजर्वेशन से ऊपर तो आये लेकिन ऊपर आते ही साथ के लोगो को भूल गए। जरूरी नही की हर अपर कास्ट का इंसान रावण हो और लोअर कास्ट का राम। बुरा करने वालों और सोचने वालों की कोई जाति धर्म या समुदाय नही होता।
मूवी डार्क है इसलिए मूवी का एनवायरनमेंट भी डार्क ही मिलेगा। कलर बिल्कुल भी गायब दिखेंगे । अनुभव सिन्हा एक डायरेक्टर के तौर पर बहुत ज्यादा इवॉल्व हुए। उनकी पिछली फ़िल्म मुल्क थी लेकिन उनकी पहली फ़िल्म तुम बिन थी। समाज की कड़वाहट इंसान को कहाँ से कहाँ ले आयी। बैकग्राउंड स्कोर किसी भी मूवी की आत्मा होती है। आप 2 घंटे की फ़िल्म में सिर्फ कहानी कहकर उस कहानी के साथ न्याय नही कर सकते । उसकी भावनाओ को समझने के लिए जिस चीज़ की जरूरत होती है उस कमी को पार्श्व संगीत के माध्यम से पूरा किया जाता है। मंगेश धकड़े ने बैकग्राउंड स्कोर दिया है। इस साल मुझे दो मूवीज का बैक ग्राउंड स्कोर अच्छा लगा। एक tumbbad और दूसरा इस मूवी का। इस मूवी की सिनेमाटोग्राफी भी उच्च स्तर की है। आप उत्तर प्रदेश का गावँ ही देखेंगे लेकिन उस लाइट में नही जैसा हम देखने के आदि हैं। इवान मुलिगन हमें वो गाव दिखाते हैं जिसकी तस्वीर इंस्टाग्राम या फेसबुक पर नही मिलती। भले ही कितना बड़ा सामाजिक मुद्दा क्यों न हो, अंत में हम एक सिनेमा देखने जाते हैं। सिनेमा केवल उपदेश दे तब भी अच्छा नही कहा जा सकता। उसमे सिनेमेटिक वैल्यू का होना बहुत जरूरी है। इसलिए ही वो सिनेमा है। फ़िल्म मेकिंग के लिहाज़ से भी आर्टिकल 15 खरी उतरती है। फ़िल्म हर लिहाज़ से ऑथेंटिक लगती है। कहानी में सस्पेंस और थ्रिल दोनों कॉम्पोनेन्ट है।जो की दर्शक को बांधे रखने का काम करते हैं।एक्टिंग सिर्फ आयुष्मान खुराना की नही बल्कि हर एक करैक्टर की जबरदस्त है फिर चाहे कितना ही छोटा रोल रहा हो। इसका बेहतरीन उदाहरण है ज़ीशान अयूब जिनकी भूमिका छोटी जरूर है लेकिन इम्पैक्टफुल है। मनोज पहवा तो उम्र के साथ बहुत ही शानदार फार्म में चल रहे हैं। कुमुद मिश्रा ने भी एक दलित पुलिस की भूमिका के साथ पूरा पूरा न्याय किया है।
अंत में यही कहूँगा कि आज लोग पढ़े लिखे हैं। वैसे हालात भी नही हैं। लोग चाहते भी हैं कि जात पात खत्म हो जाए। लेकिन अगर खत्म नही हो रहा तो लोगो को तब भी ज्यादा फर्क पड़ते दिखाई नही दे रहा। आदमी आईएएस बन जा रहा है। शादी के लिए लड़की अपनी ही बिरादरी में देख रहा है।
नवाब
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