स्त्री


स्त्री मूवी देख के निम्नलिखित बातें समझ आयीं। पहली ये की सौ बातों की एक बात , लड़की अगर बोले तो मतलब वो काम करना है।
 दूसरी ये की औरत अगर चुड़ैल भी है तो उसकी इज़्ज़त करो।
राज और dk ने जब अपनी पहली फ़िल्म बनाई गो गोआ गॉन तो मै समझ गया था ये साले बहुत बड़े बकचोद हैं। इन दोनो का टैलेंट सही जगह निकल नही पा रहा। अब जाके टैलेंट निकला है लौंडो का ,स्त्री में। हालाँकि इस बार डायरेक्शन इनका नही है पर कहानी राज और dk की है।सुमित अरोरा  को भी बराबर क्रेडिट जाता है, उतने ही अच्छे डायलाग लिखने के लिए। मूवी देखकर ऐसा ही लगता है जैसे गांव के चाचा ताऊ कहानी सुना रहे हैं। पता नही हमें हॉलीवुड से क्या ओबसेशन है। अब तक की हर हॉरर मूवी हॉलीवुड के भूतों से ही इंस्पायर लगती है। एक तो साला उनके भूतों और इलेक्ट्रिसिटी का कांसेप्ट ही समझ नही आता।  आधी मूवी में तो लगता है खोपड़ी वाले बल्ब ही ऑन ऑफ कर रहे हैं। हर मूवी में दो चार सौ बल्ब न तोड़ लें तब तक उन बेचारो को इंसलटी फील होता है ।
अरे अपने देसी भूतो/चुड़ैलों में ही इतने अच्छे कांसेप्ट हैं। बाहर से कॉपी करने की क्या जरूरत है।इंडिया के भूतों को इलेक्ट्रिसिटी से क्या मतलब वो आज भी बरगद के पेड़ पर उल्टे लटके हुए ही खुश है। डायन आज भी लालटेन लेके चले जा रही है,वो अलग बात है कि साला तेल ही खतम नही हो रहा लालटेन का,लगता है चुड़ैल दीदी पर्सनल तेल का कुआँ  खुदवा के रखी है। यहाँ विपक्ष वाले तेल तेल करके मोदी जी की जान खा गए हैं।
चुड़ैल के पैर उल्टे होते हैं। चुड़ैल की शक्ति उसकी चोटी में होती है। कितने fascinating कांसेप्ट हैं।इन कॉन्सेप्ट्स को क्यों नही यूज़ किया जाता।वैसे भी  we are so much rich in अंधविश्वास & भूत प्रेत। कुछ साल पहले एक हॉरर मूवी आयी थी। एक थी डायन, वो मुझे ढंग की लगी। बाकी हॉरर मूवीज से अलग ।उसमें भी अपनी देसी चुड़ैल थी। उसकी भी पावर उसकी चोटी में हुआ करती थी। जब भी ऐसी कहानियां सुनता हूँ तो लगता है की मैं कई साल पहले अपने गाव में पहुँच गया हूँ। तब लाइट नही हुआ करती थी हमारे यहाँ। 7 बजे के बाद अँधेरा हो जाता था। तब इंटरटेनमेंट कहानियां ही होती थी। और इन भूत चुड़ैल वाली कहानियों में तो जो सस्पेंस और मज़ा आता था वो अब कहाँ। टैलेंट तो सुनाने वाले का था , उसके बोलने का उतार चढ़ाव सही मौके पर ठहराव । ये सब मिलके वो समा बांधते थे की दिमाग में एक फ़िल्म सी चलने लगती थी। सामने सब कुछ साफ साफ दिखाई देता था।जब चच्चा कहिते कि रात के सन्नाटे में डायन सफेद साड़ी पहन के निकलती है तब गॉव के सब रंगबाज़ लौंडा लोग का हवा टाइट हो जाता था।और कहीं बीच में चाचा किसी से बोल दिए कि गला सूख रहा है और चम्पाकल से पानी भर लाओ बेटा, और किसी बेटा को अकेले जाना पड़ गया तो समझो यमराज ही दिखता था बेटा को ।
लेकिन हम साला तब भी यही सोचते थे कि ये साली डायन को सफेद साड़ी कौन देता है।उनके पेटीकोट ब्लाउज कौन सिलता है ?हम कहे चच्चा दु लप्पड़ लगा न दें तो हम कबो पुछबो ना किये।
अब कहाँ वो दिन। कहाँ वो समा बाधने वाले।
     खैर समा से याद आये पंकज त्रिपाठी । ये आदमी जो न कर दे कम है। उनका स्क्रीन स्पेस कम है पर सही टाइम पे है। एक एक डायलाग के लिए आपको प्रणाम सर।मूवी में दो जोन हैं। हॉरर और कॉमेडी। दोनो ही डिफिकल्ट जोन लेकिन दोनों में एक चीज़ कॉमन है और वो है टाइमिंग और त्रिपाठी जी ने यही टाइमिंग पूरी मूवी में पकड़ के रखा है।
 यद्यपि ये अमर कौशिक की पहली मूवी थी लेकिन दोनो ही जोन में गज़ब का बैलेंस है। मूवी एक मैसेज भी देती है,लेकिन भाषण नही । मैसेज कहानी की लेयर में छुपा है। हमारे यहाँ के मूवीज में एक बड़ी बुरी बात होती है। चिल्ला चिल्ला के मैसेज को बताना या कहें थोपना। खास तौर पर सो कॉल्ड पेट्रियोटिक मूवीज में। आप लोगों को ये मत बताइये की उन्हें देशभक्त होना चाहिए। आप ऐसे मूवी बनाइये की देखने वालों को खुद फील हो की उन्हें देशभक्त होना चाहिए।
राजकुमार राव के बारे में क्या कहा जाए। इरफान नवाज़ के साथ कोई खड़ा हो सकता है तो वो राजकुमार ही है। बाकी जो दो लौंडे हैं। बनर्जी और खुराना इनका भी काम जबरदस्त है।
एक बात और स्त्री के पास सबका आधार लिंक्ड है।

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