इन लव विथ टोक्यो


रफ़ी साहब का एक गाना है। सिनेमा का नाम था लव इन टोक्यो । वैसे तो इस पिक्चर का हर गाना ही अच्छा है। पर दो गाने मुझे खास तौर पर पसंद आते हैं। पहला गाना है जो लता जी ने गाया ।" कोई मतवाला आया मेरे द्वारे", दूसरा गाना है "आजा रे आ ज़रा" । इस गीत में खूबियों की क्या बात की जाए। बहुत सारी हैं। सबसे पहला क्रेडिट जाता है शंकर जयकिशन साहब को , जिनकी म्यूजिक का मैं बहुत बड़ा फैन हूँ । अपने जमाने के हिसाब से बहुत ही आगे की और ज़बरदस्त म्यूजिक इस जोड़ी ने तैयार की। शंकर जैकिशन को यू समझिये की जैसे बाहुबली प्री एरा और बाहुबली पोस्ट एरा । ऐसा नही था कि शंकर जयकिशन के पहले अच्छी म्यूजिक नही दी जा रही थी लेकिन इन्होंने म्यूजिक का कैनवास बदल के रख दिया । भारतीय संगीत में ऑरकेस्ट्रा का लाया जाना शंकर जयकिशन की देन है। अब म्यूजिक में सिर्फ तबला और हारमोनियम ही नही थे बैकग्राउंड में चालीस चालीस वायलिन बज रहे होते थे ,आठ नौ टाइप के परकशन चल रहे थे, सेलो और पियानो जैसे अपारंपरिक वाद्य यंत्रों का यूज़ शंकर जयकिशन ने अपने संगीत में बख़ूबी किया । जब बाकि संगीतकार धुने बना रहे थे तो शंकर जयकिशन सिम्फनी तैयार कर रहे थे। आवारा के गीत भारत ही नही विदेशों में काफी लोकप्रिय हुए, खासकर की रूस और टर्की में, आज भी इस गाने के मॉडर्न वर्जन टर्की मेंआपको सुनने को मिल सकते हैं। टर्की में तो आवारा की रीमेक भी बनी और आवारा हूँ गाने की सेम ट्यून का यूज़ उस फिल्म में किया गया। माउथ ऑर्गन जैसे इंस्ट्रूमेंट का बेहतरीन प्रयोग इस गाने में आपको जरूर याद होगा।
पर बात हो रही थी "आज रे आ ज़रा"गीत की ,इस गाने में गिटार का बेहतरीन यूज़ किया गया है। गिटार एक बैकग्राउंड इंस्ट्रूमेंट न होके यहाँ पर ऐसा लगता है की एक पैरेलल प्लेबैक कर रहा है। पर ये गिटार नही था जो संगीत निर्देशक द्वय का मजबूत पक्छ था। इनकी विशेषता वायलिन में थी। जैसा वायलिन का यूज़ शंकर जयकिशन ने किया , ये उनको मोजार्ट और बीथोवेन के संककछ ला खड़ा करता है। "मेरा नाम जोकर " का वो दृश्य याद करिए जब जोकर की माँ मर जाती है और राज कपूर साहब को स्टेज पर परफॉर्म करना होता है। ये सीन ऐतिहासिक बन ही नही सकता था अगर शंकर जयकिशन साहब ने मल्टी लेयर्ड वायलिन के साथ वोकल्स का बेहतरीन इस्तेमाल न किया होता।
मैं बार बार अपने विषय से भटक जा रहा हूँ। बात शंकर जयकिशन के सिर्फ एक गीत की करनी थी और मै पता नही क्या क्या लिख गया।  पर बात आगे बढ़ ही गयी है तो एक साहब और हैं, जिनका ज़िक्र जरूरी है।
"आ ज़रा " के प्लेबैक की बात करिए तो रफी साहब को सुरों का जादूगर यूँ ही नही कहते थे। वो सबसे पहले सिंगर थे जिन्होंने नार्मल सिंगिंग और प्लेबैक सिंगिंग के अंतर को सीखा। वो जब भी परफॉर्म करते तो उस कलाकार की बारीकियों को आत्मसात कर लेते थे। इसलिए एक्टर जब भी परफॉर्म करता तो ऐसा लगता ही नही था कि वो नही बल्कि कोई और गा रहा है।
जॉय मुखर्जी अभिनीत इस गीत में , रफी साहब की अपने समझ के हिसाब से वॉइस क्वालिटी में चेंज लाना साफ झलकता है। ऐसा चेंज वो हर एक्टर के लिए करते थे। इस अंतर को समझने के लिए आपको पुराने एक्टर्स की कई मूवीज को देखना पड़ेगा। अब शम्मी कपूर के "याहू "गाने को ही ले लीजिए या महमूद साहब के "हम काले हैं "या फिर देव आनंद साहब का "दिन ढल जाए" हर गाने में अलग रेंडरिंग और वॉइस क्वालिटी बिल्कुल अलग । और ऐसा बिल्कुल नही था कि ये चेंज सिर्फ एक्टर्स के लिए था। संगीत निर्देशक के हिसाब से भी रफी साहब स्टाइल चेंज कर देते थे। अगर शंकर जयकिशन के संगीत में मॉडर्न फ्लेवर था तो , यस डी बर्मन साहब मिनिमल इंस्ट्रूमेंट और सादगी में विस्वास रखते थे । गाइड फ़िल्म का "तेरे मेरे सपने", या "दिल का भंवर" बर्मन दा के ऐसे गीत थे जो पूरी सिम्पलीसिटी डिमांड करते थे, यहाँ आपको सारी कलाकारी छोड़कर सीधे साधे अंदाज़ में गाना था। रफी साहब ये करने में खूब माहिर थे। ये रफी साहब की रेंज थी जो  हरि दर्शन में तड़पत से लेकर आ आ जा जैसे कैबरे सांग तक जाती है। उनके जैसा वर्सटाइल सिंगर अभी तक तो नही हुआ।
पर फिलहाल अभी जो गीत मन मे चल रहा है वो है , "आ जा रे आ जरा" बोल है हसरत जयपुरी के और लयबद्ध किया गया शंकर जयकिशन के द्वारा। फ़िल्म का नाम है लव इन टोक्यो।

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