वो मनहूस दिन
आज मैं जिस बात को लेकर आप सब तमाम हज़रात की तवज्जो चाहूँगा, वो बताने से पहले आप लोगो को कुछ खास बाते जोकि मेरे बारे में है ,उनको बताना इस लिहाज़ से भी बहुत ज्यादा जरूरी समझता हूँ, क्योंकि यहाँ से मेरी जिंदगी जो अब तक जैसी चली आ रही थी उसकी कैफियत पर थोड़ी सी मिर्च मली जाएगी। इसके बाद चन्दा कुछ दूर किरन से और कुछ दूर बहार चमन से चली जाएगी।
मैं जिस दौर में बड़ा हो रहा था वो हिंदी सिनेमा का सबसे बुरा दौर था। मुझे ये नही पता इस दौर के बॉलीवुड को किसने सिखाया लेकिन इस दौर के बॉलीवुड ने एक पूरी जेनरेशन को सिखाया कि ढंग से बर्बाद कैसे होते हैं।अगर उस वक़्त रास्ट्रीय सिनेमा नाम की कभी कोई चीज़ होती तो सभी ट्रक -टेम्पो ड्राइवर,रिक्शावाले, दूधवाले,पानवाले और गली के आशिक़ आंदोलन करके "दिलवाले " को रास्ट्रीय सिनेमा घोषित करवा देते। अजय देवगन ने" फूल और काँटे "के माध्यम से हमें सिखाया कि लड़कियां कैसे पटाई जाती हैं। लड़कियों को स्टॉक करो,उनका पीछा करो, हाथ की नस काट लो ,बिल्डिंग से कूदने की धमकी दो,जहर खा लो और खून से लेटर लिखना तो बहुतअ जरूरी था।
ऐसी मूवीज बनना आम था कि जहाँ कॉलेज में लौंडे को प्यार हुआ तो फिर उसके बाद पूरा कॉलेज हीरो के पीछे सिंक में नाचने लगता था। अच्छा हीरो को तो लड़की मिल रही थी लेकिन पीछे वालों को क्या मिल रहा था पता नही। इन बैकग्राउंड स्टूडेंट्स कम डांसर्स के माँ बाप का शायद यही सपना था कि बस एक बार उनका बच्चा हीरो के पीछे नाच ले तो उसका जीवन धन्य हो जाएगा और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति ।
90 के दशक में ,पूरी दुनिया में शायद इंडिया ही वो जगह रही होगी जहाँ बकचोदी का अपने चरमोत्कर्ष पर भरण पोषण हो रहा था और लोग परेशान थे कि क्या सपना अरुण का प्यार अधूरा रह जाएगा??क्या बैडमैन सपना के साथ गाना गा पायेगा? लेकिन ऐसा भी नही था कि सिर्फ सिंघम के कंधो पर ही इन सारी बकचोदियो का उत्तरदायित्व था । देशभक्त कुमार ,परफेक्शनिस्ट खान और बाकी A लिस्टर्स का भी अप्रतिम योगदान रहा इस लिगेसी को आगे बढ़ाने में। ये तो पर्दे के आगे की कहानी थी लेकिन कुछ लोग और भी थे जो पर्दे के पीछे से इन अखंड चुतियापो को सुरों में ढाल रहे थे जिनमे अग्रणी भूमिका निभा रहे थे कुमार शानू और उनको मसाला दे रहे थे समीर। समीर ने एक गाना लिखा कि " बिन सावन झूला झूलूँ , मैं वादा कैसे भूलूँ......."।अब कोई जाके बहन को बताओ कि भारत सरकार ने पार्क बनवाएं हैं जहां झूले लगे हुए हैं। साजन क्या क्या करेगा। पहले गरीब के घर पैदा होगा। फिर गरीबी में पढ़ाई करेगा। वहाँ टॉप भी करेगा। टॉपर बनने बाद भी ,काम उसे फैक्ट्री में ही करना है ।वहाँ के मजदूरों का लीडर बनेगा। काला शेट्टी से लड़ाई करेगा।माँ की आँखों का इलाज । बहन की शादी, उसके दहेज का इंतज़ाम और साजन कहीं गलती से मिथुन निकला तो उसकी बहन की इज्जत ऑटोमेटिकली खतरे मे रहती थी,तो बहन की इज्जत भी बचानी थी। पता नही बॉलीवुड का मिथुन की बहन से क्या लफड़ा था।इतना करके जब साजन शाम को थका हारा घर लौटता था तो सजनी कहती कि झूला झूलाओ। लेकिन ऐसा नही कि साजन मना कर दे ।नही भाईसाहब वो झूला भी झूलाता था।
"कभी कभी तो मुझको लगता है साजन ही भगवान है।"
इमेजिन करिए अगर शरत बाबू ने देवदास से ये सब चूतियापे कराए होते तो क्या देवदास इतना कूल लगता । जवाब है बिल्कुल नही। देवदास के करैक्टर में फ्रस्ट्रेशन था लेकिन एक डिग्निटी भी थी। यद्यपि इस बात से इनकार नही किया जा सकता की देवदास भी एक अलग प्रकार का चूतिया ही था लेकिन कूल था। एक फ्रस्ट्रेटेड डिग्निफ़ाइड कूल चूतिया।
सामाजिक बंधनो से जकड़ा और परिभाषित प्रेम , प्रेम के वास्तविक स्वरूप को कभी जान नही सकता। प्रेम ईश्वरीय तभी हो सकता है जब वो सिर्फ प्रेम हो। चन्द्रमुखी का प्रेम मुझे कुछ कुछ उस स्वरूप की याद दिलाता है और प्रेम हमे ये भी याद दिलाता है कि वो उस मिट्टी में भी पनप सकता जहाँ उम्मीद की किरण पहुँच नही पाती और आत्मीयता की नमी सूख जाती है । लेकिन बॉलीवुड ने हमें सिर्फ यही बताया की प्यार तभी सम्भव है जब लड़की अमीर हो और लड़का गरीब या फिर लड़का अमीर और लड़की गरीब।
एक अकेली ऐसी चीज़ जो कभी हमे पर्याप्त नही मिलती, वो है प्रेम और एक अकेली चीज़ जो हम कभी किसी को पर्याप्त दे नही पाते वह भी है प्रेम । यह बात एक आम आदमी के लिए सही हो सकती है लेकिन बॉलीवुड को आम से क्या मतलब तो इन्होंने प्रेम की परिभाषा मंगल ग्रह से आयात करा ली।अब मंगल से कुछ आया है तो कम क्या होगा। इन सालों का कम कुछ भी नही होता। सब ओवर द टॉप होता है। पूरे विश्व में एकलौता बॉलीवुड ही ऐसा सिनेमा प्रोड्यूस करता है जहाँ पर प्यार सात जन्मों के लिए होता है। मंगल ग्रह पे जीवन पनप सकता था। इन सालों ने वहाँ कुछ छोड़ा ही नही। नासा वाले फ़र्ज़ी में परेशान हैं,जीवन कहाँ गया?
यहाँ पर आदरणीय रमाधीर सिंह का एक प्रसंग याद आ रहा है। वैसे तो रमाधीर सिंह बहुत ही हरामी व्यक्तित्व के स्वामी थे किन्तु प्रगतिशील विचारो के प्रणेता भी थे। उनका कहना था की जब तक हिंदुस्तान में सिनेमा रहेगा लोग साले चूतिया बनते रहेंगे।अब रमाधीर जी जैसे भी आदमी रहे हो ,लेकिन आज के परिवेश में उनकी बातें पूर्णतया चरितार्थ हो रही हैं। बॉलीवुड वाले लोगो का काट रहे थे और लोग साले हाल में जाके सीटियां मार रहे थे।
अभी तक जो ये सिनेमा का माहौल चल रहा था। इन सब के बीच 2003 में एक ऐसा सिनेमा भी आया जो ये "दिल चीर के देख...…, अंजलि तुम किसी और की हो जाओ ......या राहुल तुम चिरकुट हो तुम नही समझोगे …..." वाले सिनेमा से अलग था।
इस सिनेमा के बारे में विस्तार से चर्चा करने से पहले बता दूँ कि 2003 में मैं बलिया शहर में रहता था और टाउन इंटर कॉलेज में कक्षा 11वीं का छात्र था। ये एक सरकारी कॉलेज था और ये वो जगह भी थी जहाँ पर आके पहली बार मैंने आज़ादी का मतलब समझा क्योंकि इससे पहले के स्कूल्स में10 से 4 बैठना होता था। स्कूल मुझे जेल लगती थी। लेकिन यहाँ ऐसा कुछ भी नही था। मैं किसी भी वक़्त कॉलेज जा सकता था और वापस भी आ सकता था । क्लास अटेंड करने की कोई प्रॉब्लम थी नही क्योंकि क्लास कभी लगती थी नही और गलती से कभी कोई टीचर क्लास ले भी लेता तो अटेंडेंस की प्रॉब्लम भी थी नही। मै अपने आप को बहुत सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे यहाँ पढ़ने का मौक़ा मिला, क्योंकि 10 से 4 बैठो , होमवर्क करो जो टीचर बताए वही पढ़ो वाली पढ़ाई मुझसे नही हो सकती थी।अब मै कॉलेज इस लिए जाता क्योंकि घर पे बोर हो जाता । हमारे एक केमिस्ट्री के टीचर हुआ करते थे । उनसे हमने रिक्वेस्ट की कि हमारा एक बार प्रैक्टिकल करवा दें क्योंकि प्रैक्टिकल्स का वाइवा लेने के लिए लोग बाहर से आते थे।
उस दिन मैंने पहली बार केमिस्ट्री की लैब देखी। लैब अच्छी खासी थी। टीचर हमारा प्रैक्टिकल्स करवा रहे थे । थोड़ी देर ही हुई थी कि बाहर एक धमाका सुनाई दिया । बाहर देखा तो एक छात्र नेता थे जो अपने सब लफ़ण्डरों को लेकर हंगामा मचा रखे थे। अच्छा कुछ लोगो को शायद पता न हो लेकिन बलिया को सिर्फ बलिया ही नही कहते उसे कहते हैं बागी बलिया, और क्यों कहते हैं ये समझने का वक़्त मेरे लिए आ चुका था। पहली बार मैंने बम फटते देखा। देसी बम। हालांकि ऐसा लगा नही की बम फटा है। बम में इतना दम था नही ,शायद दीवाली वाला सुतली बम रहा होगा,फिर भी हम अपने जान पहचान वालों को महीनों सालों तक और यदा कदा आज भी यही बताते हैं कि कॉलेज में किस प्रकार से भारी गोला बारी हुई ,एक्शन ड्रामा हुआ और कैसे वहाँ से हम अपनी और अपने दोस्त की जान बचा के भागे । ये कहानी वक़्त वक़्त पर लोगो को मैं मिर्च मसाला लगा के सुनाता ही रहता था औऱ कहानी इस यकीन के साथ सुनाता था कि कुछ टाइम के बाद तो मैं खुद ही यकीन करने लग गया की शायद वैसा ही हुआ था जैसा की अब मैं सुनाता हूँ।
लेकिन हक़ीक़त ये थी कि जबसे कॉलेज में बागियों ने बम मारा, मेरा कॉलेज आना जाना बन्द हो गया। हालांकि जो वक़्त तब कॉलेज में कटता था अब वो वक़्त पुलिस ग्राउंड में क्रिकेट खेलने में जाता। इसके बाद भी कुछ वक़्त अगर बच जाता तो वो कविताएं लिखने में जाता।
पढ़ाई का जहाँ तक सवाल था तो ,ऊपर वाले ने इतना दिमाग दिया था और इतना ही दिमाग दिया था कि लोगो की नज़रो में ये भरम बना रहता था की शायद ये लड़का कुछ कर सकता है लेकिन लड़का कुछ कर भी पायेगा या कुछ करना भी चाहता है ये लड़के को भी नही पता था।
क्योंकि सच तो ये था कि मैं कोई चीता लौंडा नही था। क्रिकेट खेलने में तो बहुत बार ऐसा होता कि जब बाहर से मैच होता तो टीम से मुझे हटा दिया जाता।बार बार बेइज्जती कराने की बजाय मैंने निश्चय किया कि मै खुद ही टीम से अलग हो जाता हूँ। अब मेरे पास फिर से बहुत सारा खाली वक़्त था और संभावनाओं का आकाश अनंत था।इसी दौरान vcd प्लेयर्स की शुरुवात हुई थी। नई मूवी की पायरेटेड cd 20 रपये में मिल जाती थी। तो हुआ ऐसा कि एक मनहूस दिन मै एक मूवी की सीडी लाया जिसको लोगों ने बताया कि प्यार मोहब्बत से हटकर कुछ नया मीनिंगफुल सिनेमा आया है ।मै इस बात से बेपरवाह था कि ये एक सीडी नही , भविष्य का सुसुप्त ज्वालामुखी था। अब जिन लोगों को पता नही की सुसुप्त जवालामुखी क्या होता है , उनके लिए बताना चाहूँगा कि ये वो ज्वालामुखी होता है जो वर्षों से शांत, स्तब्ध या सोया हुआ जान पड़ता हैं पर उनके सक्रीय या जाग्रत होने की संभावना बनी रहती है। ऐसा ज्वालामुखी बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। लोग ज्वालामुखी को शांत समझकर उसकी तलहटी में बस जाते हैं पर जब किसी दिन वह विशालकाय दैत्य जागता है तो धरती हिलने लगती है, भीतर से गड़गड़ाहट की आवाज़ आने लगती है और विध्वंस-लीला प्रारम्भ हो जाती है।
भाईसाहब मेरे लिए वो जवालामुखी बागवां फ़िल्म थी। मैंने मूवी लगाई और न जाने क्या सोच के घर वालों को भी बैठा दिया । पहले तो मैंने महसूस नही किया लेकिन धीरे धीरे मैं माहौल में पैदा होने वाली गर्मी को महसूस करने लगा था।
उधर फ़िल्म चल रही थी, इधर पिताजी की निगाह अमिताभ बच्चन के गुनाहगार को ढूढ़ रही थी। अमिताभ का एक आँसू उधर टपका नही ,यहाँ पिताजी के मुँह से मैग्मा निकलना शुरू। मैंने सपोर्ट की उम्मीद में माताजी की तरफ मुँह फेरा लेकिन माताजी भी पिताजी का पूरा सपोर्ट करते नज़र आयी।
भैया निगाहों से हंटर चल रहे थे ,हंटर। बिजलियां गिर रही थी भाईसाब। साइलेंट बिजलियां।मुझे ये नही पता था साला मैं आगे चलकर डॉक्टर बनूँगा या इंजीनियर लेकिन पिताजी को ये पक्का यकीन हो चला था की उनके बुढ़ापे का अमन माथुर मैं ही हूँ।
अब साला कोई भी रिश्तेदार आये , पिताजी का दोस्त आये, कोई परिचित आये,अपरिचित आये। ये पिक्चर तो साला चलनी ही थी और पिक्चर नही तो पिक्चर का डिस्कशन चलना था।पिताजी बैठाकर दिखाते । एक बार तो एक अंकल जी ने, जो पिताजी के अच्छे मित्र भी थे,पूछा कि क्यों भाई कैसी लगी तुमको ये पिक्चर? अच्छी है ना?
ये एक ऐसा ज्वलंत सवाल था जिसका जवाब परिस्थितियों ने पहले ही निश्चित कर दिया था। यकीन मानिए दिल पर पत्थर रख कर कोई बात कैसे बोली जाती है मैंने पहली बार जीवन में महसूस किया।
भाईसाब ,अब लौंडा ऐसी लाइन पर खड़ा है ,जहाँ पे हाँ कहना उसकी मजबूरी है लेकिन हाँ कह दिया तो आत्मा कचोटेगी और ना कहने का मतलब "आ बैल मुझे मार "तो था ही ।
मेरी हालत हलाल होने वाले उस बकरे के जैसी हो गयी थी जो बकरीद पे कटता है ,फिर भी उसके और मेरे बीच एक फर्क था । वो लकी था,उसका साल का एक दिन फिक्स था जब वो अल्लाह को प्यारा हो जाता लेकिन हम साले इतने खुशनसीब नही थे । हमारी बकरीद महीने में चार बार भी आ सकती थी लेकिन हम अल्लाह को प्यारे हो जाएं ऐसी किस्मत भी नही थी।
ये मूवी साला गिल्ट रोड पर एक लांग ड्राइव थी, जहाँ के हर माइलस्टोन पर एक चाचा मिल जाते और अगर कोई चाचा नही तो हमारे मा बाप गाड़ी में तो थे ही,जो हमको अहसास दिलाते रहते थे कि हम ही हैं हो वो क्रूर निर्दयी और हरामखोर , जो अपने मा बाप का साथ बुढ़ापे में छोड़ देंगे। उनको दर दर की ठोकरे खाने को मजबूर कर देंगे।
वैसे तो मेरा पूर्व जन्म के सिद्धांतो पर विस्वास नही है , लेकिन यकीन मानिए उस दिन मैंने मान लिया था कि पूर्व जन्म नाम की कोई चीज़ होती है और निश्चित ही पूर्व जन्म में मैं एक नृशंष पापी हत्यारा या शायद हिटलर ही रहा हूँगा और शायद मेरे उन्ही पापों के बीज से एक पौधे का जन्म हुआ जिसका नाम था बागवां ।
अगले दिन से मैं दिलवाले के गाने सुनने लगा था। अजय देवगन के प्रति न जाने क्यों दिल में एक सम्मान सा जाग उठा था।
नवाब
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