बीमार होने में वो मज़ा न रहा



बीते दिनों की याद आते ही याद आता है कि जिंदगी मुश्किल थी पर लोग आसान थे, आज जिंदगी आसान है और लोग मुश्किल। न जाने ही कितने पहरे और सरहदें बना ली है अपने दरम्यां हमने । कोई रिश्ता सीधे मतलब का नही बल्कि और कहो तो मतलब के ही सब रिश्ते दिखाई देते हैं। अनाज गेंहू में तो मिलावट थी ही पर सब्र था कि ये अनाज खा के बीमार पड़ भी गए तो , चार जानने वाले धमक पड़ेंगे। कोई सर दबा देगा, कोई थर्मामीटर लेकर बैठ जायगा , कोई डॉक्टर बुला लेगा । जब ऐसा माहौल हो तो कौन बीमार नही पड़ना चाहेगा । बीमारी फिर बीमारी कहाँ रहती है। अपनापन ,दोस्ताना माहौल और प्यार की ताकत क्या होती है। ये  ऐसे वक़्त ही समझ  आता था। अगर ऐसा ही माहौल बना रहता तो शायद कैंसर का भी इलाज नही कराना पड़ता।
 हा जी ये थोड़ा ज्यादा हो गया। पर इसे अतिशयोक्ति अलंकार ही समझ लीजिए । कहने के पीछे भावना ये है कि एक जमाना था, लोग अपने आस पास के लोगो की परवाह करते थे । इस प्रकार का मोरल सपोर्ट रहने पर आज की तरह लोग बीपी, हाइपर टेंशन और अवसाद की बीमारियों से ग्रस्त नही रहते थे। ये आपसी मेलजोल की भावना हमारे कल्चर की एक महान देन थी हमारे समाज को, लेकिन अफसोस आज कल्चर केवल अयोध्या में राम मंदिर बनाने तक सीमित रह गया है।
अब वैसा कुछ नही रहा ,जैसा कभी हुआ होता होगा। लोग मिलना भी एक फॉर्मेलिटी समझते हैं, झूठा कंसर्न दिखाना नई सदी की चारित्रिक विशेषता का एक अभिन्न अंग बन चुका है। बीमार होने में वो मज़ा नही रहा ।लोग हाल चाल पूछते हैं पर जानना कुछ नही चाहते।दुःख की बात तो ये की लोगो के हसते हुए चेहरों के पीछे का सच भी साफ साफ नजर आता है। हम उसे झेलने के अलावा कुछ कर भी नही सकते । ये बनावट हर जगह है, हर क्लास में । जैसे जैसे लोगो का क्लास बढ़ता है, इन बनावट के शब्दों में भी बटर की मात्रा बढ़ती चली जाती है। बातें सीधी साधी नही हैं, बातों के पीछे न जाने कितनी लेयर्स छुपी हैं । कोई घटना साधरण नही, साधरण भी है तो लोग उसे साधरण नही रहने देते। अपनी जरूरत के हिसाब से लोग अपना मतलब हर बात में मिला लेते हैं और दिन खत्म होते होते समझा भी देते है कि सूर्य पूरब में डूबता है। विडम्बना तो ये है कि मैं इन तमाम चीज़ों पर अपना दुख जाहिर तो कर रहा हूँ पर करता मैं भी वही हूँ । मैं चाहता नही पर करता हूं और इसे सामाजिक मजबूरी का नाम भी देता हूँ लेकिन सच ये है कि ये मेरे चरित्र की कमी है।
इस दीवाली लक्छमी जी आये न आये पर सरस्वती जी जरूर आएं। अपने लिए और सबके लिए यही कामना।

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