बिल्ली और पेड़
हमारे समाज की जो परिकल्पना कभी की गयी थी। वो समाज आज भी चला आ रहा है। अब ये समाज कितना सभ्य रह गया है या था , डिबेट का विषय है। बाबा साहब अम्बेडकर ने कहा था कि अगर हमारे समाज का प्रभावशाली हिस्सा अपनी अमानवीय सोच को पहचानकर उसे बदलने के लिए प्रेरित नही होगा, तो फिर पूरा समाज ही अमानवीय कहलायेगा और हममे से कोई भी सभ्य होने का दावा नही कर पाएगा। लेकिन हम अपने आप को एक सभ्य समाज का हिस्सा होने का दावा करते ही रहते हैं। क्यों करते हैं ?क्योंकि जब तक बिल्ली चूहे को पकड़ती रहती है इस बात से कोई फर्क नही पड़ता की बिल्ली का रंग काला है या सफेद। भीड़ और समाज में फर्क होता है। भीड़ को नियंत्रण में करने के लिए एक व्यस्था की जरूरत होती है। नियत्रित भीड़ को ही समाज कहते है।चूंकि भीड़ नियत्रण में है तो व्यवस्था की समीक्षा करने की जरूरत किसी को महसूस नही होती लेकिन इसकी जरूरत है। ये देखना जरूरी है कि इस बिल्ली रूपी व्यवस्था का रंग क्या है। ये सफेद है या फिर काली और अगर काली है तो कितनी है? और फिर ये भी देखना जरूरी है कि कहीं ये काली बिल्ली रास्ता तो नही काट रही।
इंसान को सबसे श्रेष्ठ प्रजाति माना जाता है, वो लोगो पर राज कर सकता है। लेकिन ये सम्भव कैसे हुआ। एक चीज़ है जो समझने की है और वो ये कि इंसान दोहरी वास्तविकता में जी सकता है। बाकी जीव जन्तुओ के लिए वास्तविकता वस्तुगत है। मसलन उसके लिए सत्य नदी, झरना ,पहाड़ ,जमीन और हवा या अन्य जानवर हैं। इंसान अलग है, उसने वस्तुगत यथार्थ की सतह पर एक मनोगत यथार्थ को विकसित कर लिया है। इस यथार्थ का निर्माण कल्पना के बीज से हुआ । इसने वस्तुगत यथार्थ की मिट्टी में जन्म लिया । पहले पौधा बना और अब विशालकाय पेड़ बन चुका है। जैसे जैसे समय बितता गया इस तरह बहुत से पेड़ उठ खड़े हुए।इन विशालकाय पेड़ो पर जो फल लगे हैं वो फल हैं राष्ट्र, जाति, धर्म, पैसा, शक्ति सामर्थ्य और इसके अलावा और भी न जाने कितने। इन पेड़ो की जड़े बहुत गहराई तक ज़मीन में धंस चुकी हैं। इनके फल नए बीजों का निर्माण कर रहे हैं और वो बीज नए पेड़ों का।
मैं जिस काली बिल्ली की बात कर रहा था यहाँ पर वस्तुतः वो इन्ही मनोगत पेड़ो के फलों में से एक फल है ,जिसका नाम है जाति ।जाति एक मनोगत सत्य है इसने इंसान की कल्पना से ही जन्म लिया और विडम्बना ये की आज ये इतनी शक्तिशाली हो चुकी है कि इंसान को ही खत्म कर रही है ।
नवाब
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