ग़ज़ल
खिर्दो अकल नही कुछ बादाम खा रहे हैं
गालिब मगर गधे ही बस आम खा रहे हैं
आया समझ है कैसे मछली चढ़ी शज़र पे
धोखा मिला है उल्टा इल्जाम खा रहे हैं
क्या क्या ही बेचते हैं जो शब्द बेचते हैं
वो बेच के खुदा का पैगाम खा रहे हैं
कैसे कहे उसे हम झूठा है आदमी वो
धोखा इसीलिए हम गुलफ़ाम खा रहे है
है मर्ज ये ही अब तो मिलना न हो सकेगा
बस हम ज़हर दवाई के नाम खा रहे हैं
दौलत पे बाप दादा की ऐश चल रही है
आजाद देश को अब हुक्काम खा रहे हैं
हैं इस कदर अमादा खाने को लोग सारे
बाबा जो ढोंग फतवों पर इमाम खा रहे हैं
नवाब
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