मेरे सपनों वाला ब्रिज

बचपन की बात है ,जब मैं छोटा था । छोटा मतलब ये समझिये की आठ नौ साल का तब बहुत सारे  अजीब अजीब सपने आते थे , वैसे वो सपने अजीब नही थे ,सुंदर थे ,बहुत ही सुंदर ,पर क्या है कि जब हम बड़े हो जाते है तो हमें हर वो चीज़ अजीब ही लगती है जो हमारे  प्री डिफाइंड सिस्टम में डाउनलोडेड नही है ।  हमारे सिस्टम का फ़ायरवॉल उसे मालवेयर ही समझता है । अगर ये सॉफ्टवेयर्स इंस्टाल भी हो जाएं तो सिस्टम उन्हें हार्मफुल बता के हटा देता है।
बहुत सारे तो नही पर एक सपना याद आता है , मैं सोचा करता था कि , मेरे सारे दोस्तो के घरों की छत एक दूसरे से ओवरब्रिज जैसे किसी चीज़ से कनेक्ट हो जाती तो कितना मज़ा आता , आइस पाइस खेलने का तो और मज़ा था । ब्रिज आने जाने का काम तो करता ही वहाँ ऊपर से सन राइज़ और सन सेट देखना भी कितना अच्छा लगता । 
सपने में जब बरसात होती तो मैं ब्रिज पर जाके ठंडी ठंडी हवा के साथ पानी की खुली बौछारों का मज़ा लेता था। भीगने के बाद तो चाय पीने का मज़ा भी और होता है,  अपने घर चाय पी ली तो फिर ब्रिज से होके दोस्त के यहाँ चले गए, वहाँ पकौड़ी खाने को मिल जाती थी । 
उस टाइम लाइट बहुत जाया करती थी , इन्वर्टर का यूज़ रेयर था । जिनके घर होता था ,उनको हम अमीरों की केटेगरी में रखते थे । ये लोग न होते तो शायद चंद्रकांता को हम पूरी तरह कभी न जान पाते । खैर बात लाइट की हो रही थी । लाइट का न होना भी बचपन की कई अच्छी यादों में से एक है , जैसे ही 6 बजे के अराउंड लाइट जाती सब लोग बाहर घूमने निकल जाते अंकल ,आंटी , कॉलोनी के सारे बच्चे, और फिर शुरू होता था पूरे दिन का सबसे बेहतर वक़्त   हँसी मजाक खेल कूद और चुगलियों का सिलसिला। हालांकि ये 90's की बात है पर उस समय भी हीरो एक ही था अमिताभ  बच्चन ।भाई, किंग,खिलाड़ी को कोई नही जानता था । चंद्रकांता ही गेम ऑफ थ्रोन्स था और हर बच्चा सचिन बनना चाहता था ।ये उन दिनों आम बात थी।
खैर चलिए फिर से अपने सपने में वापस लौटते हैं,  तो बात लाइट जाने की हो रही थी। सपने में भी कुछ ऐसा ही माहौल होता था जैसा कि मैंने बताया बस अंतर इतना था कि इन सारे सिलसिलों में हमारा होम कनेक्टेड ब्रिज आ जाता था । अब शाम के चाय की चुस्कियां लोग ज़मीन पर नही बल्कि ज़मीन से कई सौ फुट ऊपर खुली ठंडी हवा के बीच ब्रिज पर लेते थे ,  ऑन्टी लोग की चुगलियों में बिजली जाने का गम कम और शर्मा जी की दूसरी लड़कीं के भाग जाने का ज़िक्र ज़्यादा था और हँसी में खिलखिलाहट , उसके तो कहने ही क्या।अब मैच देखने मे वो मज़ा कहां जो उस टाइम पर था , इंडिया पाकिस्तान मैच के पहले ही लोग बैटरी किराये पर लाके रख देते थे । और तो और मेरे सपनें में लोग मैच भी ब्रिज पर tv लगा के देखते थे लाइट चली जाती तो बॅटरी लगा के।वैसे तो हर ब्रिज पर ही बैटरी का इंतज़ाम था पर जहाँ नही होती वहाँ के लोग बेझिझक चले आते। जितने लोग उतना हल्ला ,उतना excitement । बॅटरी भी जवाब दे जाती तो रेडियो था, जब एंकर बोलता ये bsnl कनेक्टिंग छक्का, तो लोगो की उछल कूद और आवाज के शोर से ब्रिज ही धमकने लगता। 
हम बच्चों की तो दुनिया ही अलग थी बड़ो से, हमे तो जैसे जन्नत ही मिल गयी थी । छुपन छुपाई खेलने के लिए आलीशान ब्रिज का नेटवर्क मौजूद था ।पूरे शहर का टॉप ओवरव्यू मिलता। कोई अरबपति भी अरबों खर्च करके वो मज़ा नही ले पाता जो मै एक सपना देख के ले लेता ।न जाने कितनी बार सपनों में मैने शहर को ऊपर से देखा होगा , हर मौसम में देखा, हर पहर में देखा, पर मुझे वो समय सबसे ज्यादा अच्छा लगता जब आंधी आने वाली होती थी,आसमान में काले बादल छा जाते और धूल वाली तेज़ आंधी चलने लगती , मैं भाग के ब्रिज पर जाके खड़ा हो जाता, अंदर से बहुत अच्छा फील होता था ऐसे टाइम पर। उस समय कंक्रीट के जंगल कम थे पेड़ो के ज्यादा । जो नीचे से देखने मे कुछ खास नही लगते थे पर ऊपर किसी स्वर्ग से कम नही । वो ब्रिज बहुत खास थे।
बहुत सालों तक मैने वो सपना देखा , शायद वो सपने का ब्रिज ,ब्रिज नही मेरी भावनाएं थी, भावना ये की मैं अपने चाहने वालों को हमेशा के लिये खुद से जोड़ लू , हम हमेशा साथ रहें, एक ही साथ खेलें, बड़े हो , दूसरे ग्रुप वालो से लड़ाई भी करें साथ में, ईद में सेवइयां और दीपावली में घूझिया भी साथ साथ खाएं। पर एक दिन वो मकान ही मुझे खाली करना पड़ गया जिससे सारे ब्रिज जुड़े थे ।
अब मुझे ब्रिज के सपने नही आते , शायद मेरे सिस्टम ने उन सभी सपनो को रिमूव कर दिया है। करंट सिस्टम के लिए वो सारी चीज़ें आउटडेटेड हो चुकी हैं। उन सपनों की जगह नए सपनो ने ले ली हैं पर न तो इन सपनो को देख के खुशियों का अहसास होता है ना ही जिंदा होने का ।

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