दीपावली और अंधेरे का अस्तित्व
दीपावली आ गयी मतलब अंधेरा मिटाने का टाइम आ गया। जब से राम अयोध्या से आये लोग अँधेरा मिटाये पड़े हैं। लेकिन अंधेरा वहीं है जहाँ पहले था।सही बात तो ये है की अँधेरा मिटाया ही नही जा सकता । जब कुछ भी नही रहा होगा अँधेरा तब ही रहा होगा, उजाला तो बाद में आया । पता नही बचपन से हमे ये क्यों सिखाया जाता है कि अँधेरे के बाद सवेरा आता है । ये बात ठीक है पर ये भी तो सही है सवेरा खत्म होते ही अँधेरा फिर वापस आता है। ये कोई नही बताता। अंधरे उजाले का कांसेप्ट जोकि हमेशा "सत्य पर विजय और असत्य की हार" में उद्धरत किया जाता है ,कुछ ठीक ठीक नही बैठता। क्योंकि उजाला आते ही अगर सत्य की विजय होती है तो वापस अँधेरा आते ही असत्य की भी विजय हो जाएगी।समग्रता में इनका मतलब कुछ और ही होना चाहिए ।
बहुत सारे ऐसे सवाल है जिनके जवाब कभी नही मिलते , उजाला अपने साथ स्पष्टता लाता है पर हर सवाल का जवाब बिल्कुल स्पस्ट ही हो ये जरूरी नही। कुछ सवालों के जवाब अंधेरों में ही ढूढने पड़ते है। अंधेरे को खत्म करने से कहीं ज्यादा जरूरी है उसके वजूद को समझना। रोशनी का वजूद अंधेरे में जिंदा तो रह सकता है,पर वो अंधेरे के अस्तित्व को मिटा नही सकता।
अंधेरे को बुराई के प्रतीकात्मक रूप में देखा जाता है। मेरे ख्याल से सबसे अंधेरी जगह इंसान का दिमाग है, वहाँ पर इंसान की सबसे डीप डार्क फिलोसोफीज रहती है। ऐसा कोई भी गिल्ट नही जिसको इंसान की ये डीप डार्क फिलोसोफीज सही जस्टिफाई न कर दे लेकिन वो फिलॉसफी दुनिया के सामने नही आती पर इंसान में आती कहाँ से है?
इसका सही सही जवाब तो मुझे नही पता , बहुत सारे फैक्टर्स हो सकते हैं पर जितना मै समझ पाता हूँ इंसान के बारे में मुझे लगता है कि इंसान हर उस चीज़ को छुपाता है या छुपाने की कोशिश करता है जो उसे दुनिया की नज़रो में कमज़ोर बनाती है। आँसू कमज़ोरी है तो इंसान ढंग से रोता नही, प्यार जाहिर करना कमज़ोरी की निशानी है तो ढंग से प्यार नही एक्सप्रेस कर पाता और कमजोर रह गया तो गुस्सा भी नही कर पाता। ये बातें हमेशा उसे परेशान करती हैं।अधूरी भावनाओं का जवालामुखी उबलता रहता है । हर दिन हर घड़ी ,अंदर ही अंदर ये भावनायें क्या कुत्सित रूप ले लें पता नही । इंसान के बाहर ये ज्वालामुखी किस रूप में बाहर निकले ये भी पता नही। ये वो अंधेरी दुनिया है जिसमे हम सभी कम या ज्यादा पर जुड़े तो जरूर हैं ।
इंसान अच्छाई के दम पर चलना चाहता है, या यूँ कहें लोगों की नज़र में अच्छा दिखना चाहता है लेकिन ये चाह लेने से वो डार्क वर्ल्ड खत्म नही हो जाता । उसका अस्तित्व स्वीकारना होगा। अच्छाइयों के साथ अपनी बुराइयों को भी स्वीकारना होगा। दोनो को बराबर जगह देनी होगी।एक को ज्यादा महत्व दिया तो दूसरा विद्रोह करेगा।
दीवाली के दिए रात के अंधेरो में ही सुंदर लगते हैं,दिन के उजाले में नही। प्रकृति उजाले और अंधेरे में बैलेंस रखती है, हम सभी को भी अपनी अच्छाई के उजाले और बुराई के अंधेरे में वो बैलेंस ढूढना है।
नवाब
Comments