Botanical Garden Walk
मुझे वो याद नही जो मुझे पढ़ाया गया , मुझे वो याद है जो मैंने सीखा
मैं और पांडेय , मॉर्निंग वाक के लिए बोटैनिकल गार्डन जाते हैं। आज हमारे साथ अजीत भी आया। अजीत मेरे एक और दोस्त ज्ञानी का भतीजा है और KGMC में 3rd ईयर का स्टूडेंट है। चुपचाप वाकिंग करना बोरिंग हो जाता है और रोज रोज बात करने के लिए नया टॉपिक कहाँ से आये, तो आज वाकिंग करते समय एक ख्याल आया की क्यों न कल के लिए हम सभी एक एक पेड़ सेलेक्ट कर लें, उसके बारे में रिसर्च करेंगे और फिर उस पर डिस्कशन करेंगे। सभी को ये आईडिया पसंद आया । उक्त आईडिया के फ्लोट होने के तत्क्रम में ,पांडेय ने तुरंत अपना पेड़ सेलेक्ट कर लिया। उसका पेड़ था कैसिया फिस्टुला ।अजीत को मिला टेक्टोना ग्रांडिस और मेरे हिस्से जो पेड़ आया वो था अल्स्टोनिया स्कॉलरिश । हालाँकि पेड़ों का सिलेक्शन रैंडम था लेकिन मेरे हिस्से जो पेड़ आया, उसको लेकर मुझे थोडी मायूसी हुई क्योंकि मुझे उसमे कुछ खास नज़र नही आया। इंसानों में एक मेंटेलिटी होती कि उनको बिना वजह ही कोई चीज़ अच्छी लग सकती या बुरी । उसके पीछे कोई लॉजिक नही होता, बस मन को लग जाता है ये अच्छा है तो अच्छा और वो बुरा है तो बुरा।
अब मेरा पेड़ जो था वो था लेकिन पांडेय का पेड़ मुझे नाम से ही अद्भुत लग रहा था और देखने में भी attractive था। अजीत का पेड़ भी सही लग रहा था। मुझे लगा कल सबके पास बताने के लिए इंटरेस्टिंग होगा बस मेरे पास ही कुछ खास नही होगा।
मुझे ये तो पता था की मेरी किस्मत बड़ी खराब है लेकिन साला पेड़ के मामले में भी चूतिया कटेगा, ये कौन anticipate कर सकता था। मेरा अपने बारे में एक ख्याल है कि अगर भगवान मेरे रास्ते में सोने से भरा एक घड़ा भी रख देंगे तो पक्का है कि ठीक उसी समय मेरे मन में ख्याल आएगा कि आज थोड़ी देर आंख बन्द करके चलने का एक्सपीरियंस लेते हैं।
खैर बड़े बुझे हुए मन से मैंने अपने पेड़ को गूगल पर सर्च किया । विकिपीडिया का पेज खोला और पढ़ने लगा ,तो जैसा मैंने सोचा था वही हुआ, कुछ खास नही मिला । मेरे पेड़ के बारे में पहली बात ये पता चली कि पेड़ साउथर्न चाइना एशिया का नेटिव प्लांट है। इसको हिंदी में सप्तपर्णी भी कहते हैं। मैं बिना किसी उम्मीद के विकिपीडिया पर नीचे स्क्रॉल किये जा रहा था, फिर एक जगह जाकर मै रुक गया । वहाँ पर एक इंटरेस्टिंग इनफार्मेशन दे रखी थी । इनफार्मेशन थी कि ये पेड़ वेस्ट बंगाल का "स्टेट ट्री "है। मैंने सोचा कि वहाँ के लोगो को पेड़ नही मिल रहे हैं क्या? या फिर और कोई बात है।
एक बात जिस पर मुझे ध्यान देना चाहिए था लेकिन मैं दे नही रहा था, वो थी इसका नाम जिसमें "स्कॉलरिश " वर्ड आ रहा था।बाद में पता चला की स्कॉलरिश वर्ड स्कॉलर से रिलेटेड है। वेस्ट बंगाल में एक यूनिवर्सिटी है ,विश्व भारती जहाँ कॉन्वोकेशन में वहाँ के ग्रेजुएट्स, पोस्ट ग्रेजुएट्स और स्कॉलर्स को इस पेड़ की पत्तियाँ उनके चांसलर द्वारा सम्मान स्वरूप दी जाती हैं । हालांकि अब पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए सिर्फ वाईस चांसलर ही सभी स्टूडेंट्स के behalf पर चांसलर से ये पत्ती स्वीकार करते हैं लेकिन हैरानी की बात ये नही है , जो बात जान के हैरानी हुई , वो ये है कि इस यूनिवर्सिटी का चांसलर कोई और नही बल्कि भारत का प्रधानमंत्री होता है। इस यूनिवर्सिटी के तीन हाई ऑफिसियल होते हैं। आचार्य(चांसलर) ,उप आचार्य(वाईस चांसलर) और परिदर्शक । परिदर्शक बाइ डिफ़ॉल्ट भारत का राष्ट्रपति होता है। यूनिवर्सिटी को चलाने का कार्य "कर्म समिति" का होता है जो आचार्य या चांसलर के तत्वावधान तले चलती है।
इस यूनिवर्सिटी की भी एक कहानी है।ये यूनिवर्सिटी पहले एक ब्रह्मचर्य आश्रम हुआ करती थी, जिसको देबेन्द्र नाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन में बनाया था। इस आश्रम के लिए जमीन रायपुर के एक जमींदार ने दी थी। देबेन्द्र नाथ के सबसे छोटे बेटे थे रविन्द्र नाथ टैगोर। उन्होंने 1901 में शांतिनिकेतन के उसी आश्रम में एक विद्यालय की नींव रखी , जो बाद में विस्तारित होकर 1921 में विश्विद्यालय बना। रविन्द्र नाथ टैगोर ओपन एयर एजुकेशन में विश्वास रखते थे। उनका मानना था की चार दिवारों में पढ़ाना ,मतलब दिमाग को बाँधने जैसा है। कुछ सीखने के लिए दिमाग का खुली हवा में सांस लेना जरूरी है।
रविन्द्र नाथ टैगोर ने एक बार कहा था" मुझे वो याद नही जो मुझे पढ़ाया गया , मुझे वो याद है जो मैंने सीखा"
वो पश्चिमी शिक्षा पद्धिति में विश्वास नही करते थे। उनका मानना था कि सभी छात्र अपने आप में जीनियस है और सबको एक ही समय सीमा में नही सिखाया जा सकता। एक ही चीज़ को सीखने के लिए हर छात्र द्वारा लिया गया समय अलग अलग हो सकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक ऐसा स्कूल सिस्टम डेवेलप किया जहाँ पर स्टूडेंट तब तक अपनी पढ़ाई जारी रख सकता है, जब तक खुद छात्र और टीचर दोनों संतुष्ट न हो जाएं।यदि कोई छात्र ऐसी चीज़ सीखना चाहता है या पढ़ना चाहता है जिसका कोर्स यूनिवर्सिटी में उपलब्ध नही है तो यूनवर्सिटी उस कोर्स को डिज़ाइन करती थी और उसके लिए टीचर का प्रबंध भी करती थी। यूनिवर्सिटी इस बात की चिंता नही करती थी कि उस कोर्स की डिमांड है कि नही।
उस वक़्त पर इतनी ज्यादा प्रोग्रेसिव थिंकिंग थी ,ये सोच कर आज हैरानी होती है।आज का माहौल देख कर समझ नही आता कि हम जा किधर रहे हैं? ये भी नही कह सकता कि पीछे जा रहे हैं। काश पीछे ही चले जाते। शिक्षा के बाज़ारीकरण ने कई सारे फूलों को खिलने से पहले ही तबाह कर दिया।
मैकाले की शिक्षा पद्धति की जगह अगर हमने गुरुदेव का एजुकेशन मॉडल फॉलो किया होता।
मैंने बहुत पहले एक ग़ज़ल लिखी थी , उसका मतला था कि:-
हम बहुत दूर तक भी अगर जाएंगे
कट के मिट्टी से अपनी किधर जाएंगे
हम क्या नही बन सकते थे , हम क्या बन के रह गए। न ढंग से हिंदी आती है न अंग्रेज़ी। न वेदों का ज्ञान है न साइंस की समझ, इतिहास से कुछ सीखते नही और फ्यूचर को बदलने में लगे हुए हैं लेकिन बदल क्या रहे हैं ये भी नही पता। बस ये पता है की अंधेरी गुफा में दौड़ना है , रुकना मना है।रुक गये तो लोग इतना डरा देंगे कि दौड़ना जरूरत नही मजबूरी बन जाएगी, कुछ और सोचने का तो सवाल ही पैदा नही होता क्योंकि दिमाग तो बहुत साल पहले चार दिवारी ने बन्द कर दिया था ।
लेकिन जैसा मुझे लग रहा था उसके अपोजिट आज बहुत टाइम बाद मेरी किस्मत खराब नही थी ।आज मेरे रास्ते में सोने का घड़ा था और मैंने आँख बन्द करने का डिसिजन नही लिया। मै कल अल्स्टोनिया स्कॉलरिश का एक पत्ता घर लाऊंगा । मुझे ये नही पता कि मैं ये क्यों करूँगा लेकिन एक पत्ता तो जरूर लाऊंगा।
अब , जब मैं इस आर्टिकल को पोस्ट करने जा रहा था तो मैंने अपने भाई से कहा इस आर्टिकल को पढ़ो और बताओ कैसा है। मै उससे कुछ भी उम्मीद कर सकता था लेकिन इस जवाब की उम्मीद तो बिल्कुल भी नही थी ।उसने बोला आज "टीचर्स डे "है और ये मुझे बिल्कुल भी याद नही था।
नवाब
मैं और पांडेय , मॉर्निंग वाक के लिए बोटैनिकल गार्डन जाते हैं। आज हमारे साथ अजीत भी आया। अजीत मेरे एक और दोस्त ज्ञानी का भतीजा है और KGMC में 3rd ईयर का स्टूडेंट है। चुपचाप वाकिंग करना बोरिंग हो जाता है और रोज रोज बात करने के लिए नया टॉपिक कहाँ से आये, तो आज वाकिंग करते समय एक ख्याल आया की क्यों न कल के लिए हम सभी एक एक पेड़ सेलेक्ट कर लें, उसके बारे में रिसर्च करेंगे और फिर उस पर डिस्कशन करेंगे। सभी को ये आईडिया पसंद आया । उक्त आईडिया के फ्लोट होने के तत्क्रम में ,पांडेय ने तुरंत अपना पेड़ सेलेक्ट कर लिया। उसका पेड़ था कैसिया फिस्टुला ।अजीत को मिला टेक्टोना ग्रांडिस और मेरे हिस्से जो पेड़ आया वो था अल्स्टोनिया स्कॉलरिश । हालाँकि पेड़ों का सिलेक्शन रैंडम था लेकिन मेरे हिस्से जो पेड़ आया, उसको लेकर मुझे थोडी मायूसी हुई क्योंकि मुझे उसमे कुछ खास नज़र नही आया। इंसानों में एक मेंटेलिटी होती कि उनको बिना वजह ही कोई चीज़ अच्छी लग सकती या बुरी । उसके पीछे कोई लॉजिक नही होता, बस मन को लग जाता है ये अच्छा है तो अच्छा और वो बुरा है तो बुरा।
अब मेरा पेड़ जो था वो था लेकिन पांडेय का पेड़ मुझे नाम से ही अद्भुत लग रहा था और देखने में भी attractive था। अजीत का पेड़ भी सही लग रहा था। मुझे लगा कल सबके पास बताने के लिए इंटरेस्टिंग होगा बस मेरे पास ही कुछ खास नही होगा।
मुझे ये तो पता था की मेरी किस्मत बड़ी खराब है लेकिन साला पेड़ के मामले में भी चूतिया कटेगा, ये कौन anticipate कर सकता था। मेरा अपने बारे में एक ख्याल है कि अगर भगवान मेरे रास्ते में सोने से भरा एक घड़ा भी रख देंगे तो पक्का है कि ठीक उसी समय मेरे मन में ख्याल आएगा कि आज थोड़ी देर आंख बन्द करके चलने का एक्सपीरियंस लेते हैं।
खैर बड़े बुझे हुए मन से मैंने अपने पेड़ को गूगल पर सर्च किया । विकिपीडिया का पेज खोला और पढ़ने लगा ,तो जैसा मैंने सोचा था वही हुआ, कुछ खास नही मिला । मेरे पेड़ के बारे में पहली बात ये पता चली कि पेड़ साउथर्न चाइना एशिया का नेटिव प्लांट है। इसको हिंदी में सप्तपर्णी भी कहते हैं। मैं बिना किसी उम्मीद के विकिपीडिया पर नीचे स्क्रॉल किये जा रहा था, फिर एक जगह जाकर मै रुक गया । वहाँ पर एक इंटरेस्टिंग इनफार्मेशन दे रखी थी । इनफार्मेशन थी कि ये पेड़ वेस्ट बंगाल का "स्टेट ट्री "है। मैंने सोचा कि वहाँ के लोगो को पेड़ नही मिल रहे हैं क्या? या फिर और कोई बात है।
एक बात जिस पर मुझे ध्यान देना चाहिए था लेकिन मैं दे नही रहा था, वो थी इसका नाम जिसमें "स्कॉलरिश " वर्ड आ रहा था।बाद में पता चला की स्कॉलरिश वर्ड स्कॉलर से रिलेटेड है। वेस्ट बंगाल में एक यूनिवर्सिटी है ,विश्व भारती जहाँ कॉन्वोकेशन में वहाँ के ग्रेजुएट्स, पोस्ट ग्रेजुएट्स और स्कॉलर्स को इस पेड़ की पत्तियाँ उनके चांसलर द्वारा सम्मान स्वरूप दी जाती हैं । हालांकि अब पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए सिर्फ वाईस चांसलर ही सभी स्टूडेंट्स के behalf पर चांसलर से ये पत्ती स्वीकार करते हैं लेकिन हैरानी की बात ये नही है , जो बात जान के हैरानी हुई , वो ये है कि इस यूनिवर्सिटी का चांसलर कोई और नही बल्कि भारत का प्रधानमंत्री होता है। इस यूनिवर्सिटी के तीन हाई ऑफिसियल होते हैं। आचार्य(चांसलर) ,उप आचार्य(वाईस चांसलर) और परिदर्शक । परिदर्शक बाइ डिफ़ॉल्ट भारत का राष्ट्रपति होता है। यूनिवर्सिटी को चलाने का कार्य "कर्म समिति" का होता है जो आचार्य या चांसलर के तत्वावधान तले चलती है।
इस यूनिवर्सिटी की भी एक कहानी है।ये यूनिवर्सिटी पहले एक ब्रह्मचर्य आश्रम हुआ करती थी, जिसको देबेन्द्र नाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन में बनाया था। इस आश्रम के लिए जमीन रायपुर के एक जमींदार ने दी थी। देबेन्द्र नाथ के सबसे छोटे बेटे थे रविन्द्र नाथ टैगोर। उन्होंने 1901 में शांतिनिकेतन के उसी आश्रम में एक विद्यालय की नींव रखी , जो बाद में विस्तारित होकर 1921 में विश्विद्यालय बना। रविन्द्र नाथ टैगोर ओपन एयर एजुकेशन में विश्वास रखते थे। उनका मानना था की चार दिवारों में पढ़ाना ,मतलब दिमाग को बाँधने जैसा है। कुछ सीखने के लिए दिमाग का खुली हवा में सांस लेना जरूरी है।
रविन्द्र नाथ टैगोर ने एक बार कहा था" मुझे वो याद नही जो मुझे पढ़ाया गया , मुझे वो याद है जो मैंने सीखा"
वो पश्चिमी शिक्षा पद्धिति में विश्वास नही करते थे। उनका मानना था कि सभी छात्र अपने आप में जीनियस है और सबको एक ही समय सीमा में नही सिखाया जा सकता। एक ही चीज़ को सीखने के लिए हर छात्र द्वारा लिया गया समय अलग अलग हो सकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक ऐसा स्कूल सिस्टम डेवेलप किया जहाँ पर स्टूडेंट तब तक अपनी पढ़ाई जारी रख सकता है, जब तक खुद छात्र और टीचर दोनों संतुष्ट न हो जाएं।यदि कोई छात्र ऐसी चीज़ सीखना चाहता है या पढ़ना चाहता है जिसका कोर्स यूनिवर्सिटी में उपलब्ध नही है तो यूनवर्सिटी उस कोर्स को डिज़ाइन करती थी और उसके लिए टीचर का प्रबंध भी करती थी। यूनिवर्सिटी इस बात की चिंता नही करती थी कि उस कोर्स की डिमांड है कि नही।
उस वक़्त पर इतनी ज्यादा प्रोग्रेसिव थिंकिंग थी ,ये सोच कर आज हैरानी होती है।आज का माहौल देख कर समझ नही आता कि हम जा किधर रहे हैं? ये भी नही कह सकता कि पीछे जा रहे हैं। काश पीछे ही चले जाते। शिक्षा के बाज़ारीकरण ने कई सारे फूलों को खिलने से पहले ही तबाह कर दिया।
मैकाले की शिक्षा पद्धति की जगह अगर हमने गुरुदेव का एजुकेशन मॉडल फॉलो किया होता।
मैंने बहुत पहले एक ग़ज़ल लिखी थी , उसका मतला था कि:-
हम बहुत दूर तक भी अगर जाएंगे
कट के मिट्टी से अपनी किधर जाएंगे
हम क्या नही बन सकते थे , हम क्या बन के रह गए। न ढंग से हिंदी आती है न अंग्रेज़ी। न वेदों का ज्ञान है न साइंस की समझ, इतिहास से कुछ सीखते नही और फ्यूचर को बदलने में लगे हुए हैं लेकिन बदल क्या रहे हैं ये भी नही पता। बस ये पता है की अंधेरी गुफा में दौड़ना है , रुकना मना है।रुक गये तो लोग इतना डरा देंगे कि दौड़ना जरूरत नही मजबूरी बन जाएगी, कुछ और सोचने का तो सवाल ही पैदा नही होता क्योंकि दिमाग तो बहुत साल पहले चार दिवारी ने बन्द कर दिया था ।
लेकिन जैसा मुझे लग रहा था उसके अपोजिट आज बहुत टाइम बाद मेरी किस्मत खराब नही थी ।आज मेरे रास्ते में सोने का घड़ा था और मैंने आँख बन्द करने का डिसिजन नही लिया। मै कल अल्स्टोनिया स्कॉलरिश का एक पत्ता घर लाऊंगा । मुझे ये नही पता कि मैं ये क्यों करूँगा लेकिन एक पत्ता तो जरूर लाऊंगा।
अब , जब मैं इस आर्टिकल को पोस्ट करने जा रहा था तो मैंने अपने भाई से कहा इस आर्टिकल को पढ़ो और बताओ कैसा है। मै उससे कुछ भी उम्मीद कर सकता था लेकिन इस जवाब की उम्मीद तो बिल्कुल भी नही थी ।उसने बोला आज "टीचर्स डे "है और ये मुझे बिल्कुल भी याद नही था।
नवाब
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