पिताजी की औलादें


एक दिन ऐसे ही मैं , मेरा छोटा भाई पंकज और हमारे पिताजी बैठ के tv देख रहे थे। हम जब भी साथ बैठते हैं तो कोई न कोई डिस्कशन हो ही जाता है। पुराने अनुभवों से शिक्षा लेते हुए मैं शांति का दामन थाम लेता हूँ लेकिन मेरा भाई वो गरम दल का क्रांतिकारी प्रखर पुरूष है और पिताजी तो खैर पिताजी ही ठहरे, जिनका मानना है कि औलादें तो बाप दादा के सीने पे खो खो कब्बडी खेलने के लिए ही जन्म लेती हैं।
उस दिन माहौल न ज्यादा गर्म था न ज्यादा ठंडा।  मैच चल रहा था और साथ में चल रहा था डिस्कशन किसी बात पर। मैंने कोल्ड ड्रिंक की एक पेटी मंगा रखी थी।कोल्ड ड्रिंक बोतल खोलने की बात आई तो ओपनर ही नही मिल रहा था। तो पंकज ने तत्परता का परिचय देते हुए तुरंत बोतल उठाई और दाँत के किनारों से बोतल फसा कर खटाक से खोल दी। इस तरह से बोतल खोलने वाली विद्या में मैं भी पूर्ण रूप से पारंगत था तो मैंने भी एक बोतल उठा ली लेकिन तब तक मेरा ध्यान पिताजी की तरफ गया तो मै क्या देखता हूँ की पिताजी पंकज को भस्म कर देने वाली नज़रो से घूर रहे थे। फिर मैंने पंकज की तरफ देखा । वो भी डिफेंसिव मोड में आ चुका था और वो आंखों से ही अपनी बात समझाने की कोशिश कर रहा था । मेरी कुछ समझ नही आ रहा था। लेकिन आंखों वाली कन्वर्सेशन  में खुद को सफल न होते हुए देख कर पंकज ने अंततः बोल ही दिया कि "आप जैसा समझ रहे वैसा कुछ नही है। मैं तो बहुत पहले से बोतल ऐसे ही खोलता हूँ। "
पिताजी भी दाँत पीसते हुए बोले वो तो दिख ही रहा है। इसलिए ही कॉलेज भेजा था। अच्छी पढ़ाई चल रही है तुम्हारी। 
मामला तो मैं भी समझ गया था , हम तीनों के अंडरस्टैंडिंग वाली फ्रीक्वेंसी अपने चर्मोत्कर्ष पर synchronise हो रही थी। तो उस वक़्त बोतल खुद खोलने की बजाय मैंने पंकज की तरफ बढ़ाना ही ज्यादा उचित समझा। पंकज मेरी तरफ देख रहा था लेकिन फिर मैंने नासमझ बने रहने में ही भलाई समझी। आखिर पिताजी को ये लगना भी जरूरी था की उनकी एक औलाद अभी भी बिगड़ी नही है।
उधर पंकज जो बिना किसी गलती के ही गुनाहों का देवता बन बैठा था बार बार अपनी सफाई दिए जा रहा था। लेकिन..........

नवाब

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